कला व संस्कृति

Yuva: कलाओं के घर में नई आवाजें

बादलों से झरती बरसाती बौछारों ने भोपाल के भाल पर जैसे ही हरियाली का तिलक किया, बड़ी झील के आईने में झांकते भारत भवन के आकाश पर इन्द्रधनुष खिल उठा. यह सतरंगी आभा कला के गलियारों तक फैली तो तरूणाई का ताप क़तरे-क़तरे में उतर आया. शब्द, रंग, दृश्य, सुर-ताल, लय-गति और अभिनय से लेकर छवियों तक युवा प्रतिभाओं की उमंगें थिरक उठीं. आभासी दुनिया से निकलकर रचना का यह परिसर जीवंत संवाद और मेल-मिलाप के लिए युवाओं की अहम जगह बना. अपने हृदय प्रदेश के उस सांस्कृतिक पुरूषार्थ और विरसे में मिली थाती को भी एक बार फिर स्मृति में अँजोरने का यह सुनहरा मौक़ा था जिसके बग़ैर मध्यप्रदेश की पहचान अधूरी है.

 

15 से 21 जुलाई के दरमियानी सात दिन जैसे बंद लिफाफों में महफूज़ खुश्बुओं के ख़त थे. एक-एक कर लिफ़ाफे खुलते गए. सावन की सौंधी आहटों के बीच सुबह-शामें संवरती रही. सांस्कृतिक सौहार्द, समरसता और रचनात्मक विनिमय की एक नई दुनिया उकेरता यह समारोह था- ‘युवा’.

 

बहुकला केन्द्र भारत भवन के संयोजन में फैला यह उत्सव जिस सृजनात्मक सूझ, सुरूचि और विवेक से गढ़ा गया, उसे अमूमन सरकारी खानापूर्ति की बलि चढ़ने वाली गतिविधियों से परे नई पीढ़ी के लिए संभावना का नया आकाश रचने की जरूरी पहल कहा जा सकता है. भारत भवन ने अपनी बुनियादी आकांक्षा को लक्ष्य करते हुए अपनी गतिविधियों के विस्तार में समकालीन युवाओं की भागीदारी को भी सुनिश्चित किया है. दरअसल, आचरण, अभ्यास, जिज्ञासा, उत्साह, हौसले और परिश्रम की ज़मीन पर खड़े होकर अपनी परंपरा और आधुनिकता से आँख मिलाने, सोचने और रचने की हुमस से भरी तरूणाई के ताप को क़रीब से देखने-महसूसने का यह मंच है. उस सांस्कृतिक-वैचारिक हस्तक्षेप और उद्वेलन का मंच, जो अपनी विरासत का मान रखते हुए अपने उत्तराधिकार में अनुभव के नए आयाम जोड़ता रहा है. संभावना की ओर खुलता एक आकाश, जिसमें कल्पना के नए रंग उभरते रहे.

 

समारोह का विहंगम एक ऐसी समग्रता रचता है जहाa मध्यप्रदेश की सर्जना का उजास उस युवा पीढ़ी तक फैलता दिखाई देता है जो अपनी परंपरा से प्रेरित और संस्कारित होकर नवाचार का साहस रखती है. निश्चय ही उसके सामने बहुलता की कि़स्म अलग तरह की है. उसके वक़्ती दौर की चुनौतियां, धीरज, भ्रम, विचलन, संशय, संघर्ष और सपने जुदा हैं. लेकिन अपनी रचनाशीलता का स्पेस तलाशना यह तरूण पीढ़ी जानती है. अभिव्यक्ति के नए मंच के अनुकूल वह अपना कौशल अख्तियार कर रही है. यहां सवाल रचनात्मक विवेक, गहराई, संवाद, साधना और संयम को लेकर बहस होती रही. यह भी कि युवा रचनाकारों के तेवरों में ताप है उर्वर कल्पनाशीलता भी लेकिन प्रसिद्धि की शीघ्रता, प्रशंसा और आत्ममुग्धता ने उससे अभ्यास और धीरज का अवकाश छीन लिया है. फिर भी उनका बावरा मन अपने सपनों के मिट्टी-गारे को संजोकर एक नई कायनात को आकार देने मचल पड़ा है. यह सूत्र कहीं उनके हाथ लगा ही है कि जीवन को गहरे में समझने तथा बेहतर बनाने के रास्ते साहित्य और संस्कृति से ही होकर गुज़रते हैं. यही वो ज़रिया है जहाँ से नई प्रेरणा और सोच का उजाला फूटता है. ‘युवा’ की सांस्कृतिक सभाएँ अपनी परंपरा का राग छेड़ती जिस तरह झिलमिल और मनोहारी बन पड़ीं उन्हें ग़ौर करते हुए नई प्रतिभा पर गर्व भी उमड़ा कि उन्होंने सच्चे उत्तराधिकार का संकेत दिया है. युवा कंठों में लरजता मध्यप्रदेश का लोक राग इस यक़ीन पर मोहर लगाता रहा कि तहज़ीब के नाम पर मध्यप्रदेश की रंगभूमि पर हमेशा उत्सवों की लालिमा तैरती रहेगी.

 

अपनी हदों में एक लक्ष्य को साधकर भारत भवन ने इस समारोह के जरिए बड़ी संभावना का फलक तैयार किया है. कवि और भारत भवन के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी प्रेमशंकर शुक्ल ने अपने स्वागत भाषण में ही संकेत दिया कि यह आयोजन अपनी कल्पना के वितान में सीमा में बंधा है लेकिन यह मध्यप्रदेश सहित दीगर राज्यों की युवा रचनाशीलता के लिए एक मॉडल की तरह काम कर सकता है यानि एक बड़े सांस्कृतिक कुंभ की कल्पना जीवंत हो सकती है. अगर ऐसा मुमकिन हो सका तो यह भारत भवन के इस आयोजन का बड़ा हासिल होगा.

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